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स्ट्रॉबेरी की खेती कैसे करें / strawberry farming in Hindi

स्ट्रॉबेरी की खेती (strawberry farming) सर्वप्रथम उत्तरी अमेरिका में हुआ था यह रोजेसी कुल का पौधा है। यहाँ से यह यूरोप, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और अन्य देशों के पर्वतीय अंचलों और शीतोषण क्षेत्रों में फैल गया है। भारत में इसका उत्पादन नैनीताल, देहरादून, हिमाचल प्रदेश, महाबलेश्वर, महाराष्ट्र, नीलगिरी और दार्जलिंग पहाड़ियों में किया जाता है। अब इसे मैदानी क्षेत्रों, दिल्ली, बंगलौर, जालंधर, मेरठ, पंजाब और हरियाणा में भी उगाया जाता है कुछ राज्य जैसे सोलन हल्दवानी, देहरादून, रतलाम, नासिक, गुड़गाँव और अबोहर स्ट्राबेरी के लिए जाने जाते है।

झारखंड की मिट्टी और जलवायु दोनों स्ट्रॉबेरी की खेती के लिए अनुकूल हैं। अत: इसे यहाँ व्यवसायिक रूप से खेती की जा सकती है। आजकल इसके लाल, गुलाबी, सुगंधित और पोषक फलों की बहुत मांग है। इससे जैम और जैली भी बनाए जाते हैं। 100 ग्राम फल में 87.8% पानी, 0.7% प्रोटीन, 0.2% वसा, 0.4% खनिज लवण, 1.1% रेशा, 9.8% कार्बोहाइड्रेट, 0.03% कल्शियम, 0.03% फास्फोरस और 1.8 प्रतिशत लौह तत्व मौजूद होते हैं। इसमें 52 मिलीग्राम विटामिन सी, 0.2 मिलीग्राम राइवोफ्लेविन और 30 मिलीग्राम निकोटिनिक एसिड भी होती हैं। इस फल में विटामिन सी, लौह और खनिज तत्व की भरपूर मात्रा होने के कारण रक्त अल्पता से पीड़ित लोगों को बहुत फायदेमंद साबित हुआ है।

ड्रिप सिस्टम की स्थापना एवं खेत की तैयारी

स्ट्राबेरी का फल नाजुक होता है और आसानी से खराब हो जाता है। अत: अधिक उत्पादन और अच्छी गुणवत्ता के लिए फसल को ड्रिप सिंचाई प्रणाली के तहत पानी देना चाहिए। इसके लिए, फल और पौधे के अन्य भागों, जैसे पत्ती और तना, को पानी से सीधे संपर्क में रखना बेहतर होता है। ड्रिप सिंचाई प्रणाली से एक एकड़ में स्ट्रोबेरी लगाने का खर्च लगभग 40 से 65 हजार रूपये होता है। फसल की रोपाई से पहले खेत को गहरी जुताई करके अच्छी तरह समतल करना चाहिए। तैयार खेत में रिज मेकर (करहा) या फावड़े की सहायता से 40 सें.मी. चौड़ी व 20 से 25 सें.मी. ऊँची एक मीटर चौड़ी क्यारी बनाएँ। पट्टियों या मेडों की लंबाई उनकी सुविधानुसार रखे

किस्में

भारत में उगाई जाने वाली स्ट्रॉबेरी की खेती की अधिकांश किस्में बाहर से आति हैं, जबकि कुछ किस्में स्थानीय जलवायु के लिए संकर तरीके से बनाई गई हैं।

  • अगेती— डगलस, गोरिल्ला, फर्न, अर्लिग्लो और तिओगा
  • पिछेती: चांडलर, डाना, सेल्भा और स्वीट चार्ली

प्रवर्धन

स्ट्राबेरी के व्यावसायिक प्रसारण के लिए फलन के बाद, जून से जुलाई तक, पौधों पर 15 दिन के अंतर पर 50 ppm जिब्रेलिक एसिड घोल का छिड़काव किया जाता है। प्रति रनर से 15 से 20 पौधे बनते हैं। शुरू में तीन से चार पौधे ही उत्पादक होते हैं। इन्हीं पौधों को मुख्य खेत में लगाया जाता है। खेत से बाहर निकलने वाले रनर्स को तोड़ देने से उपज अच्छी मिलती है। टिशु कल्चर से भी रनर बनाये जा सकते है। एक पौधे से दूसरे पौधे में 5 से 10 तक नए पौधे (रनर) बनते हैं।

स्ट्रॉबेरी की खेती में सिंचाई एवं खाद

फलन में सिंचाई की मात्रा मौसम की परिस्थितियों और भूमि की प्रकृति पर अधिक निर्भर करती है। अक्टूबर से नवंबर तक, ड्रिप सिस्टम को हर दिन 40 मिनट (20 मिनट सुबह और 20 मिनट शाम) तक चलाना चाहिए। फसल की आवश्यकतानुसार यह समय घटाया या बढ़ाया जा सकता है। स्ट्राबेरी शीघ्र फल देने के कारण अधिक खाद और उर्वरक की आवश्यकता होती है। रोपाई से पहले तैयार क्यारी में 20 ग्राम DAP प्रतिवर्ग मीटर की दर से 2 किलोग्राम गोबर की खाद मिलाकर डाल दें

इसके बाद ड्रिप सिस्टम के माध्यम से सिंचाई के पानी के साथ सप्ताह में एक घुलनशील उर्वरक, जो सूक्ष्म तत्वों, पोटाश और नाइट्रोजन को प्रदान कर सकता है, दिया जाना चाहिए। ड्रिप सिंचाई से प्रति एकड़ 50:25:35 किग्रा नेत्रजन, फॉसफोरस और पोटाश का प्रयोग करना होता हैं।

पौध रोपण का समय व विधि

सितंबर से नवंबर तक स्ट्राबेरी की रोपाई की जा सकती है। अगेती रोपाई से फसल का अच्छा मूल्य मिलता है, लेकिन सितंबर में तापमान अधिक रहने से पौधों की मौत 15-20 तक होती है। वास्तव में, फसल की रोपाई अक्टूबर में ही की जानी चाहिए। एक एकड़ फसल के लिए 44-45 हजार रनर की आवश्यकता होती है। तैयार क्यारी में 30 से 25 सेमी की दूरी पर एक समान, स्वस्थ रनर रोपें। रोपाई के बाद स्प्रिंकलर पानी से मिट्टी को भर देते हैं। रोपाई से पूर्व रनर की जड़ों को 5 से 10 मिनट तक वाबिस्टीन के 0.1 प्रतिशत घोल में डुबा दें।

Strawberry farming में फसल प्रबंधन एवं खरपतवार नियंत्रण

स्ट्राबेरी का पौधा और फल बहुत नाजुक होते हैं, इसलिए उसे विशेष प्रबंध चाहिए। मल्चिंग से पूर्व फसल की 25 दिन के अंतराल पर निराई-गुड़ाई करें। रोपाई के 30 दिन बाद केवल एक गुड़ाई पर्याप्त होती है अगर फसल खरपतवारों से मुक्त है। यदि खेत में मोथा का प्रकोप है, तो उसे नष्ट करने के लिए 3 लीटर प्रति एकड़ राउंड अप या लीडर खरपतवार नाशी का प्रयोग करने के बाद फसल लगायें।

strawberry farming in Hindi

रोपाई के पच्चीस दिन बाद फसल की मल्चिंग होती है। इस काम में सस्ती काली पालीथीन का प्रयोग करें। क्यारी की चौड़ाई और लम्बाई के अनुसार पालीथीन की पट्टियाँ बनाकर ब्लेड की सहायता से छेद बनाकर पौधों को छेद से ऊपर बिछा देते हैं। काली पालीथीन लगाने से खरपतवार ऊपर निकल नहीं पते है और मर जाते है, यह मिट्टी में नमी बनाये रखता है और सर्दी में जमीन को गर्म करता है। पालीथीन के स्थान पर धान के पुआल को भी मल्चिंग के लिए प्रयोग कर सकते हैं।

पैकिंग एवं विपणन

स्ट्राबेरी के फलों को बहुत नाजुक होने की वजह से छोटे पारदर्शी प्लास्टिक के डिब्बे (प्लास्टिकनेट) में पैक करते हैं। एक पनेट में 200 ग्राम फल होते हैं। गत्ते के दो टुकड़ों के बीच इन भरे हुए डिब्बों को रखकर टेप से चिपका देते हैं। इस तरह से पैक किए गए डिब्बों को सड़कों और रेलों से दूरस्थ स्थानों तक पहुंचाया जाता है। सुरक्षित और क्षति रहित परिवहन और बिक्री के लिए वातानुकूलित वाहनों का उपयोग भी कर सकते है। तुडाई के बाद फलों को जल्दी से बेचना बहुत जरुरी होता है। तुड़ाई के बाद फलों को शीत गृह में रखा जाना चाहिए नहीं तो वे सिर्फ दो दिन में खराब हो जाते हैं।

कीट व बीमारी नियंत्रण

लाल कोर : यह रोग फफूंदी के कारन होता है। प्रभावित पौधे छोटे हो जाते हैं और उनकी पत्तियाँ नीले रंग की शैवाल की हो जाती हैं। प्रभावित पौधे की जड़ों को तोड़ने पर मध्य भाग लाल रंग का दिखाई देता है। अगर ये रोग पोधो पे लग जाये तो प्रति लीटर पानी में चार ग्राम रिडोमिल नामक दवा को मिलाकर छिड़काव करें।

सन्थ्रेकनोज :  इस रोग से प्रभावित पौधे की पत्तियों, तनों और फल पर काले धब्बे बनते हैं। यह मैंकोजेब 0.15% घोल से नियंत्रित किया जा सकता है।

झुलसा: पौधे की पत्तियों पर अनियमित आकार के बैगनी और लाल धब्बे बन जाते हैं। फफूंदी का उग्र प्रकोप होने पर पौधे का पूरा हिस्सा झुलस जाता है।

इसके अलावा, एफिड, थ्रिप्स, सफेद मक्खी, लाल मकड़ी और अन्य कीड़े पत्तियों से रस चूसकर फसल को नुकसान पहुंचाते हैं। सैप विटिल नामक कीड़ा फलों में छेद करके उनका रस चूसता है। इंडोसल्फान 0.5 प्रतिशत इसे नियंत्रित करता है।


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